शिव की नगरी में शुरु हुई शक्ति की उपासना, प्रथम दिन शैलपुत्री के दरबार में श्रद्धालुओं की भीड़...

देवाधिदेव महादेव की नगरी में मां भगवती की आराधना का पर्व शारदीय नवरात्र का सोमवार से प्रारंभ हो चुका है। इसके साथ ही मां के मंदिरों में भी श्रद्धालुओं के जयकारों से रौनकें होने लगी हैं।

शिव की नगरी में शुरु हुई शक्ति की उपासना, प्रथम दिन शैलपुत्री के दरबार में श्रद्धालुओं की भीड़...

वाराणसी,भदैनी मिरर। देवाधिदेव महादेव की नगरी में मां भगवती की आराधना का पर्व शारदीय नवरात्र का सोमवार से प्रारंभ हो चुका है। इसके साथ ही मां के मंदिरों में भी श्रद्धालुओं के जयकारों से रौनकें होने लगी हैं। नौ दिन तक चलने वाले पावन पर्व में हर दिन शक्ति के अगल-अलग रूपों की पूजा की जाती है। इसी क्रम में नवरात्रि की प्रथम तिथि को मां शैलपुत्री के दर्शन का महात्म्य है। काशी  में मां शैलपुत्री का मंदिर अलईपूरा क्षेत्र में स्थित है। देर रात से ही माता के दर्शन करने के लिए आस्था का जनसैलाब मंदिर में उमड़ा हुआ है।  पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने से देवी के पहले रूप को शैलपुत्री कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि सच्चे मन से शैलपुत्री की आराधना करने वाले भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। वृषभ शैलपुत्री का वाहन है, इसलिए इन्हें वृषारूढ़ा के नाम से भी जाना जाता है। 


एक बार जब प्रजापति ने यज्ञ किया तो इसमें सारे देवताओं को निमंत्रित किया, लेकिन भगवान शंकर को नहीं। सती यज्ञ में जाने के लिए व्याकुल हो उठीं। शंकरजी ने कहा कि सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है। सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। सती जब घर पहुंचीं तो सिर्फ मां ने ही उन्हें स्नेह दिया।

बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव थे। भगवान शंकर के प्रति भी तिरस्कार का भाव है। दक्ष ने भी उनके प्रति अपमानजनक वचन कहे। इससे सती को कष्ट पहुंचा। वे अपने पति का यह अपमान न सह सकीं और योगाग्नि द्वारा अपने को जलाकर भस्म कर लिया। इस दुख से व्यथित होकर भगवान शंकर ने उस यज्ञ का विध्वंस करा दिया।

यही सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री का विवाह भी भगवान शंकर से ही हुआ। शैलपुत्री शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं। पार्वती और हेमवती भी इसी देवी के अन्य नाम हैं। हिमालय के यहां पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण हुआ शैलपुत्री। इनका महत्व और शक्ति अनंत है। देवी ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और बाएं हाथ में कमल सुशोभित है। यही देवी प्रथम दुर्गा हैं। ये ही सती के नाम से भी जानी जाती हैं। मां शैलपुत्री को लाल फूल, नारियल, सिंदूर, घी का दीपक जलाकर प्रसन्न किया जाता है।