गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के ख़िलाफ़ काशी के विद्वतजनों को खड़ा होना होगा: जलपुरुष राजेन्द्र सिंह
वाराणसी, भदैनी मिरर। जब भी भारत पर संकट आया है, काशी के विद्वतजनों ने सामने आकर नये रास्ते खोजने की कोशिश की है। बनारस को निडर होकर गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा और इस अभियान को रोज़ाना गतिविधियों और नयी सूझ के साथ जोड़ना होगा। बनारस सिर्फ़ धार्मिक अनुष्ठानों की ही नहीं, हमारी अंतर्राष्ट्रीयता की भी राजधानी है। उक्त बातें जलपुरुष राजेन्द्र सिंह ने बतौर मुख्य वक्ता पराड़कर भवन में आयोजित सामाजिक- सांस्कृतिक- बौद्धिक समूहों के साझा समूह काशी विचार मंच के तत्वावधान में आयोजित संगोष्ठी में कही।
जानेमाने पर्यावरण कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह ने विकास के तथाकथित मॉडल को विनाशकारी बताते हुए उसकी निंदा की। उन्होंने कहा कि साफ़ नदी जल और खोई हुई पहचान को वापस पाने के लिए हमें संघर्ष करना होगा। अपने सुचिंतित व्याख्यान में राजेन्द्र सिंह ने गंगा की अविरलता के लिए हुए संघर्षों और 2014 के बाद की सियासत में प्रोफेसर जी.डी. अग्रवाल और स्वामी निगमानंद जैसे पर्यावरणविदों की शहादत को याद किया। उन्होंने कहा कि जब एक कम बोलने वाला इंसान भारत का प्रधानमंत्री था तो उसने हमलोगों के नेतृत्व में चले जनांदोलन के बाद हमसे हुई बातचीत के असर में उत्तराखंड में बन रहे चार बाँधों का निर्माण कार्य तत्काल हमेशा के लिए रोक दिया था। और जो आदमी यह चीख-चीखकर बतलाता फिरता है कि गंगा का असली बेटा वही है और उसे माँ गंगा ने ही काशी में बुलाया है, उसने गंगा की दुर्गति करने का कोई भी काम बाक़ी नहीं छोड़ा है।
उन्होंने बताया कि इंदिरा गाँधी ने सन 1972 के पहले विश्व पृथ्वी सम्मेलन में स्वीडेन की संसद और राष्ट्रपति भवन के बीच बहती स्टॉकहोम नदी की सफ़ाई से प्रेरित होकर गंगा से ही नदियों की स्वच्छता के एक अभियान का सूत्रपात किया, जिसे 1986 में गंगा कार्ययोजना का रूप देकर राजीव गाँधी ने अमली जामा पहनाया। कुछ राजनीतिक विश्लेषक माँ की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर को राजीव की जीत की वजह बताते रहते हैं, लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि राजीव ही पहले राजनेता हैं जिन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में नदियों के आध्यामिक और सांस्कृतिक महत्व को पहचानते हुए उसकी सफाई के मुद्दे को जगह दी. जनता ने इस लगाव और सपने को पहचाना था और कांग्रेस की यादगार जीत हुई थी।