ज्ञानवापी श्रृंगार गौरी प्रकरण: हिंदू पक्ष का तर्क 1993 तक होती रही है पूजा, नहीं लागू होता प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट, 21 जुलाई को फिर होगी सुनवाई...
जिला जज डॉ. अजय कृष्ण विश्वेश की कोर्ट में दोनों पक्षों की बहस हुई। हिंदू पक्ष की वादिनी राखी सिंह के वकील शिवम गौड़ कोर्ट में पेश किए गए 361 पन्नों पर बहस किए। प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट पर भी बहस हुई। 1993 तक ज्ञानवापी परिसर में पूजा होती रही है, इसलिए वहां पर यह एक्ट लागू नहीं होता।
वाराणसी,भदैनी मिरर। ज्ञानवापी प्रकरण की मंगलवार को की सुनवाई एक घंटे देरी से शुरू होने के कारण पूरी नहीं हो पाई और अगली डेट 21 जुलाई की दी गई है। जिला जज डॉ. अजय कृष्ण विश्वेश की कोर्ट में दोनों पक्षों की बहस हुई। हिंदू पक्ष की वादिनी राखी सिंह के वकील शिवम गौड़ कोर्ट में पेश किए गए 361 पन्नों पर बहस किए। प्लेसेज ऑफ वरशिप एक्ट पर भी बहस हुई। 1993 तक ज्ञानवापी परिसर में पूजा होती रही है, इसलिए वहां पर यह एक्ट लागू नहीं होता। कोर्ट से बाहर निकलकर उन्होंने कहा कि वक्फ बोर्ड यह तय नहीं करेगा कि महादेव की पूजा कहां होगी। शिवम गौड़ ने कहा कि कोर्ट को गुमराह करने का प्रयास किया जा रहा है। अंदाजा है कि परसों हम लोग अपनी बहस पूरी कर लेंगे। जितने भी आरोप मुस्लिम पक्ष की ओर से लगाए जा रहे हैं उनका जवाब देकर निष्कर्ष तक पहुंचेंगे।
इससे पहले शिवम गौड़ ने सोमवार को कहा था, "देश की आजादी के दिन से लेकर वर्ष 1993 तक मां शृंगार गौरी की नियमित पूजा होती थी। वहां का धार्मिक स्वरूप हिंदू धर्म का था। साल 1993 में सरकार ने अचानक बैरिकेडिंग लगा कर दर्शन और पूजा बंद करा दी। इसलिए प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट और वक्फ एक्ट इस प्रकरण में लागू नहीं होते हैं।"
उन्होंने यह भी कहा, "हमारा दावा ज्ञानवापी की जमीन पर नहीं है। हमारा दावा सिर्फ मां शृंगार गौरी के नियमित दर्शन और पूजा के लिए है।" इससे पहले मुस्लिम पक्ष यह दावा कर चुका है कि मां शृंगार गौरी का मुकदमा किसी भी तरह से सुनवाई योग्य नहीं है। देवता की संपत्ति नष्ट नहीं होती है। मंदिर टूट जाने से उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होगा।
वर्ष 1937 में बीएचयू के प्रोफेसर एएस अलटेकर ने अपनी पुस्तक में ज्ञानवापी स्थित मंदिर टूट जाने के बाद इस तथ्य का जिक्र किया है कि वहां क्या क्या बचा है और कहां पूजा हो रही है।
वर्ष 1937 के दीन मोहम्मद केस का फैसला आया था, वह सभी पर बाध्यकारी नहीं है। क्योंकि उसमें हिंदू पक्षकार कोई नहीं था।
वर्ष 1993 में व्यास जी पूजा किया करते थे, जो अब बैरिकेडिंग कर सील कर दिया गया। हिंदू लॉ में अप्रत्यक्ष देवता भी मान्य हैं। देवता को हटा दिए जाने से भी उनका स्थान वही रहता है।
मुस्लिम लॉ में स्पष्ट है कि जो प्रॉपर्टी वक्फ को दी जाती है वह मालिक द्वारा ही दी जा सकती है। ज्ञानवापी के संबंध में कोई वक्फ डीड नहीं है। न कोई सबूत कोर्ट में पेश किया गया है कि यह वक्फ की संपत्ति है।
ज्ञानवापी परिसर में वर्ष 1993 तक जैसे दर्शन-पूजन होता था। वैसे ही व्यवस्था फिर से लागू की जाए।
स्वयंभू देवता की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं की जाती है।
डीके मुखर्जी की पुस्तक हिंदू लॉ और श्रीराम-जानकी मंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि स्वयंभू देवता कौन होते हैं। कितने प्रकार के होते हैं और उनकी पूजा कैसे की जाती है।
धार्मिक अधिकार मौलिक अधिकार से परे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उपेंद्र सिंह के मुकदमे में स्पष्ट किया है कि धार्मिक अधिकार सिविल वाद के दायरे में आते हैं।
प्लॉट नंबर-9130 के बाबत अपने आवेदन में कहा है, "600 वर्षों से नमाज पढ़ते चले आ रहे हैं। दीन मोहम्मद के केस में भी प्लॉट नंबर-9130 को स्वीकार किया गया है। "
श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर एक्ट में आराजी नंबर-9130 देवता की जगह मानी गई है। सिविल प्रक्रिया संहिता के ऑर्डर 7 रूल 3 में संपत्ति का मालिकाना हक खसरा या चौहद्दी से होता है। इस मामले में खसरा का जिक्र मुकदमे में किया गया है।
मुस्लिम पक्ष ने किए थे ये दावे
ज्ञानवापी परिसर में प्लॉट नंबर-9130 पर लगभग 600 वर्ष से ज्यादा समय से मस्जिद कायम है। वहां वाराणसी और आस-पास के मुस्लिम 5 वक्त की नमाज अदा करते हैं। संसद ने वर्ष 1991 में दी प्लेसेज आफ वर्शिप (स्पेशल प्रॉविजन) एक्ट 1991 बनाया। उसमें इस बात का प्रावधान है कि जो धार्मिक स्थल 15 अगस्त 1947 को जिस हालत में थे, वह उसी हालत में बने रहेंगे।
वर्ष 1983 में उत्तर प्रदेश सरकार ने श्रीकाशी विश्वनाथ अधिनियम 1983 बनाया गया। जिससे संपूर्ण काशी विश्वनाथ परिसर की देखरेख के लिए बोर्ड ऑफ ट्रस्टी बनाने का प्रॉविजन है। बोर्ड ऑफ ट्रस्टी को ही श्री काशी विश्वनाथ मंदिर और उसके परिसर के देवी-देवताओं के प्रबंध का अधिकार मिला है।
ज्ञानवापी मस्जिद वक्फ की संपत्ति है। इससे संबंधित अधिकार यूपी सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ वक्फ लखनऊ को हैं। ऐसे में इस अदालत को सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है।
मौलिक अधिकार के तहत हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करनी चाहिए। मुकदमा कानूनन निरस्त किए जाने लायक है और उसे निरस्त किया जाना जरूरी है।