महामना को महाप्रणाम: देश का गौरव बढ़ाने को रखी BHU की नींव, गंगा और गाय को लेकर भी किया संघर्ष...

हमारे भारत देश के संविधान का पहला खंड गौ हत्या की रोकथाम पर होना चाहिए" "कमजोर आदमी हर काम को असम्भव समझता है जबकि वीर साधारण।"

महामना को महाप्रणाम: देश का गौरव बढ़ाने को रखी BHU की नींव, गंगा और गाय को लेकर भी किया संघर्ष...

मदन मोहन मालवीय का नाम इतिहास के पन्नों में सोने अक्षरों से लिखा जा चुका है मैं ऐसे क्यों बोल रही क्योंकि न सिर्फ उनका व्यक्तित्व महान था बल्कि भारत की बेड़ियों से बंधी आजादी को क्रूर विदेशी आक्रांताओं से छीलने में मदद की थी और उनका देश को आगे बढ़ाने में बड़ा योगदान रहा यह पता उनके विचार से चलता है उन्हे ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करना था जो देश का मस्तक गौरव से ऊंचा कर सके जिनको लगता है कि सोने की चिड़ियां भारत विदेशी आक्रांताओं से लूट ली गई है उन्हे गलत लगता है भारत सोने से नहीं बल्कि सोने जैसे अपनी संस्कृति और उसके अनंत ज्ञान भण्डार से जाना जाता है इसलिए उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। वह एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे जिनको महामना की उपाधि से विभूषित किया गया। भारत सरकार ने मालवीय जी को 24 दिसंबर 2014 को भारत रत्न के सम्मान से अलंकृत भी किया।

मालवीय जी के अनमोल विचार

 "हमारे भारत देश के संविधान का पहला खंड गौ हत्या की रोकथाम पर होना चाहिए"

"कमजोर आदमी हर काम को असम्भव समझता है जबकि वीर साधारण।"

"भारत की एकता का मुख्य आधार है एक संस्कृति, जिसका उत्साह कभी नहीं टूटा यही इसकी विशेषता है।"

"आप प्रेम को खरीद नहीं सकते, लेकिन इसके लिए आपको भारी जुर्माना जरुर भरना पड़ता है।"

"हम मानते हैं कि धर्म चरित्र का आधार है और मानव सुख का सबसे बड़ा स्त्रोत है "

"जो इंसान अपने स्वयं की निंदा सुन लेता है वह सारे विश्व पर विजय प्राप्त कर लेता है"

"यदि आप मानव आत्मा की आंतरिक शुद्धता को स्वीकार करते हैं, तो आप या आपका धर्म किसी भी व्यक्ति के स्पर्श या संगति से कभी भी अशुद्ध या अपवित्र नहीं हो सकता है"

"अंग्रेज़ी माध्यम भारतीय शिक्षा में सबसे बड़ा विघ्न है।"

"सभ्य संसार के किसी भी जन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।"

"निर्भयता ही स्वतंत्रता का एकमात्र मार्ग है निडर बनो और न्याय के लिए लड़ो।"

"विनम्रता के बिना ज्ञान बेकार है।"

"देश तभी ताकत हासिल कर सकता है और खुद को विकसित कर सकता है जब भारत के विभिन्न समुदायों के लोग आपसी सद्भावना और सद्भाव से रहते हैं।"

मालवीय जी का स्वर्णिम इतिहास 

मालवीयजी का जन्म प्रयागराज में (25 दिसम्बर 1861 - 11 नवंबर 1946) को पं० ब्रजनाथ व मूनादेवी के यहाँ हुआ था। वे अपने माता-पिता से उत्पन्न कुल सात भाई बहनों में पाँचवें पुत्र थे। मध्य भारत के मालवा प्रान्त से प्रयाग आ बसे उनके पूर्वज मालवीय कहलाते थे। आगे चलकर यही जातिसूचक नाम उन्होंने भी अपना लिया। पंडित इनको और इनके पिता जी को उपाधि मे मिली पिता पण्डित ब्रजनाथजी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर अपनी आजीविका अर्जित करते थे।

पाँच वर्ष की आयु में उन्हें उनके माँ-बाप ने संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती करा दिया जहाँ से उन्होंने प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात वे एक अन्य विद्यालय में भेज दिये गये जिसे प्रयाग की विद्यावर्धिनी सभा संचालित करती थी। यहाँ से शिक्षा पूर्ण कर वे इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने गये। यहीं उन्होंने मकरन्द के उपनाम से कवितायें लिखनी प्रारम्भ की। उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं। लोगबाग उन्हें चाव से पढते थे। 1879 में उन्होंने म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से, जो आजकल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है, मैट्रीकुलेशन (दसवीं की परीक्षा) उत्तीर्ण की। हैरिसन स्कूल के प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कलकत्ता विश्वविद्यालय भेजा जहाँ से उन्होंने 1884 ई० में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की।इस बीच अखाड़े में व्यायाम और सितार पर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा वे बराबर देते रहे। उनका व्यायाम करने का नियम इतना अद्भुत था कि साठ वर्ष की अवस्था तक वे नियमित व्यायाम करते ही रहे।

सात वर्ष के मदनमोहन को धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला के देवकीनन्दन मालवीय माघ मेले में ले जाकर मूढ़े पर खड़ा करके व्याख्यान दिलवाते थे। शायद इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में अंग्रेजी के प्रथम भाषण से ही प्रतिनिधियों को मन्त्रमुग्ध कर देने वाले मृदुभाषी मालवीयजी उस समय विद्यमान भारत देश के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के व्याख्यान वाचस्पतियों में इतने अधिक प्रसिद्ध हुए। हिन्दू धर्मोपदेश, मन्त्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप ग्रथों में उनके धार्मिक विचार आज भी उपलब्ध हैं जो परतन्त्र भारत देश की विभिन्न समस्याओं पर बड़ी कौंसिल से लेकर असंख्य सभा सम्मेलनों में दिये गये हजारों व्याख्यानों के रूप में भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ प्रेरणा और ज्ञान के अमित भण्डार हैं। उनके बड़ी कौंसिल में रौलट बिल के विरोध में निरन्तर साढ़े चार घण्टे और अपराध निर्मोचन (अंग्रेजी: Indemnity) बिल पर पाँच घण्टे के भाषण निर्भयता और गम्भीरतापूर्ण दीर्घवक्तृता के लिये आज भी स्मरणीय हैं। उनके उद्घरणों में हृदय को स्पर्श करके रुला देने की क्षमता थी, परन्तु वे अविवेकपूर्ण कार्य के लिये श्रोताओं को कभी उकसाते नहीं थे।

म्योर कालेज के मानसगुरु महामहोपाध्याय पं० आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ 1880 ई० में स्थापित हिन्दू समाज में मालवीयजी भाग ले ही रहे थे कि उन्हीं दिनों प्रयाग में वाइसराय लार्ड रिपन का आगमन हुआ। रिपन जो स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण भारतवासियों में जितने लोकप्रिय थे उतने ही अंग्रेजों के कोपभाजन भी। इसी कारण प्रिसिपल हैरिसन के कहने पर उनका स्वागत संगठित करके मालवीयजी ने प्रयाग वासियों के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।

हिन्दी का उत्थान 

कालाकाँकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीयजी ने उनके हिन्दी अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दुस्तान का 1887 से सम्पादन करके दो ढाई साल तक जनता को जगाया। उन्होंने कांग्रेस के ही एक अन्य नेता पं0 अयोध्यानाथ का उनके इण्डियन ओपीनियन के सम्पादन में भी हाथ बँटाया और 1907 ई0 में साप्ताहिक अभ्युदय को निकालकर कुछ समय तक उसे भी सम्पादित किया। यही नहीं सरकार समर्थक समाचार पत्र पायोनियर के समकक्ष 1909 में दैनिक 'लीडर' अखबार निकालकर लोकमत निर्माण का महान कार्य सम्पन्न किया तथा दूसरे वर्ष मर्यादा पत्रिका भी प्रकाशित की। इसके बाद उन्होंने 1924 ई0 में दिल्ली आकर हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति प्रदान करने हेतु लाहौर से विश्वबन्द्य जैसे अग्रणी पत्र को प्रकाशित करवाया।

हिन्दी के उत्थान में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में हिन्दी गद्य के निर्माण में संलग्न मनीषियों में 'मकरंद' तथा 'झक्कड़सिंह' के उपनाम से विद्यार्थी जीवन में रसात्मक काव्य रचना के लिये ख्यातिलब्ध मालवीयजी ने देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख 1898 ई0 में विविध प्रमाण प्रस्तुत करके कचहरियों में प्रवेश दिलाया। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन (काशी-1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि "उसे फारसी-अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी।" सम्मेलन के एक अन्य वार्षिक अधिवेशन (बम्बई-1919) के सभापति पद से उन्होंने हिन्दी उर्दू के प्रश्न को, धर्म का नहीं अपितु राष्ट्रीयता का प्रश्न बतलाते हुए उद्घोष किया कि साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है। समस्त देश की प्रान्तीय भाषाओं के विकास के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने के आग्रह के साथ यह भविष्यवाणी भी की कि कोई दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस भाँति अंग्रेजी विश्वभाषा हो रही है उसी भाँति हिन्दी का भी सर्वत्र प्रचार होगा। 

संस्कृति के रक्षक

सनातन धर्म व हिन्दू संस्कृति की रक्षा और संवर्धन में मालवीयजी का योगदान अनन्य है। जनबल तथा मनोबल में नित्यश: क्षयशील हिन्दू जाति को विनाश से बचाने के लिये उन्होंने हिन्दू संगठन का शक्तिशाली आन्दोलन चलाया और स्वयं अनुदार सहधर्मियों के तीव्र प्रतिवाद झेलते हुए भी कलकत्ता, काशी, प्रयाग और नासिक में भंगियों को धर्मोपदेश और मन्त्रदीक्षा दी। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रनेता मालवीयजी ने, जैसा स्वयं पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, अपने नेतृत्वकाल में हिन्दू महासभा को राजनीतिक प्रतिक्रियावादिता से मुक्त रखा और अनेक बार धर्मों के सहअस्तित्व में अपनी आस्था को अभिव्यक्त किया।

प्रयाग के भारती भवन पुस्तकालय, मैकडोनेल यूनिवर्सिटी हिन्दू छात्रालय और मिण्टो पार्क के जन्मदाता, बाढ़, भूकम्प, सांप्रदायिक दंगों व मार्शल ला से त्रस्त दुःखियों के आँसू पोंछने वाले मालवीयजी को ऋषिकुल हरिद्वार, गोरक्षा और आयुर्वेद सम्मेलन तथा सेवा समिति, ब्वॉय स्काउट तथा अन्य कई संस्थाओं को स्थापित अथवा प्रोत्साहित करने का श्रेय प्राप्त हुआ, किन्तु उनका अक्षय-र्कीति-स्तम्भ तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही है जिसमें उनकी विशाल बुद्धि, संकल्प, देशप्रेम, क्रियाशक्ति तथा तप और त्याग साक्षात् मूर्तिमान हैं। विश्वविद्यालय के उद्देश्यों में हिन्दू समाज और संसार के हित के लिये भारत की प्राचीन सभ्यता और महत्ता की रक्षा, संस्कृत विद्या के विकास एवं पाश्चात्य विज्ञान के साथ भारत की विविध विद्याओं और कलाओं की शिक्षा को प्राथमिकता दी गयी। उसके विशाल तथा भव्य भवनों एवं विश्वनाथ मन्दिर में भारतीय स्थापत्य कला के अलंकरण भी मालवीय जी के आदर्श के ही प्रतिफल हैं।

महामना के याद में 

मालवीय जी ने ही कांग्रेस के सभापति के रूप में सुझाया था कि "सत्यमेव जयते" को भारत का राष्ट्रीय उद्घोष वाक्य स्वीकार किया जाय। उन्होंने हरिद्वार में हर की पौड़ी पर गंगा आरती का आयोजन किया जो आज तक चल रहा है। हरिद्वार में घाट के निकट ही स्थित एक छोटे से द्वीप का नाम "मालवीय द्वीप" रखा गया है।

प्रयागराज, लखनऊ, दिल्ली, देहरादून, भोपाल, दुर्ग और जयपुर में उनके सम्मान में "मालवीय नगर" बसे हैं। जबलपुर में एक चौराहे का नाम "मालवीय चौक" रखा गया है। मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, गोरखपुर तथा मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जयपुर का नामकरण भी उनके नाम पर किया गया है। उनके नाम पर अनेक छात्रावासों के नाम "मालवीय भवन" रखे गये हैं जिनमें से आईआईटी खड़गपुर, आई. आई. टी. रूडकी का सहारनपुर परिसर, बिड़ला प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान संस्थान के पिलानी तथा तथा हैदराबाद परिसर सम्मिलित हैं।

2011 में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया। 24 दिसम्बर 2014को भारत सरकार ने उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया। 22 जनवरी 2016 को महामना एक्सप्रेस चलायी गयी जो वाराणसी से दिल्ली के बीच चलती है।