नाटी इमली का भरत मिलाप : 473 सालों से यदुवंशी निभा रहे ये परंपरा, जानिए काशी के ऐतिहासिक भरत मिलाप के बारे में
काशी के लक्खा मेला में शुमार नाटी इमली के भरत मिलाप की तैयारियां जोरों पर है.आज इस ऐतिहासिक भरत मिलाप को देखने के लिए सिर्फ काशी ही नहीं आस-पास के जिलों से लोगों का हुजूम यहां पहुंचेगा. मान्यता है कि 473 साल पुरानी काशी की इस लीला में भगवान राम स्वंय धरती पर अवतरित होते है
वाराणसी, भदैनी मिरर। काशी के लक्खा मेला में शुमार नाटी इमली के भरत मिलाप की तैयारियां जोरों पर है.आज इस ऐतिहासिक भरत मिलाप को देखने के लिए सिर्फ काशी ही नहीं आस-पास के जिलों से लोगों का हुजूम यहां पहुंचेगा. मान्यता है कि 473 साल पुरानी काशी की इस लीला में भगवान राम स्वंय धरती पर अवतरित होते है. शाम को लगभग चार बजकर चालीस मिनट पर जैसे ही अस्ताचल गामी सूर्य की किरणे भरत मिलाप मैदान के एक निश्चित स्थान पर पड़ती हैं तब लगभग पांच मिनट के लिए माहौल थम सा जाता है. जैसे ही चारों भाइयों का मिलन होता है पूरे मैदान में जयकारा गूंज उठता है.
यादव बंधु निभाते हैं परंपरा
यदुकुल के कंधे पर रघुकुल का रथ सवार होता है तो एक अद्भुत नजारा काशी में देखने को मिलता है. आंखों में सुरमा लगाए धोती और बनियान और सर पर पगड़ी लगाए यादव बंधु श्रीराम का 5 टन का पुष्पक विमान फूल की तरह पिछले 473 सालों से लीला स्थल तक लाते हैं और भाइयों को रथ पर सवार कर अयोध्या तक ले जाते हैं.
चित्रकूट रामलीला समिति के व्यवस्थापक पंडित मुकुंद उपाध्याय के अनुसार तुलसीदास ने बनारस के गंगा घाट किनारे रह कर रामचरितमानस तो लिख दी, लेकिन उस दौर में श्रीरामचरितमानस जन-जन के बीच तक कैसे पहुंचे ये बड़ा सवाल था. लिहाजा प्रचार प्रसार करने का बीड़ा तुलसी के समकालीन गुरु भाई मेघाभगत ने उठाया. जाति के अहीर मेघाभगत विशेश्वरगंज स्थित फुटे हनुमान मंदिर के रहने वाले थे. सर्वप्रथम उन्होंने ही काशी में रामलीला मंचन की शुरुआत की. लाटभैरव और चित्रकूट की रामलीला तुलसी के दौर से ही चली आ रही है.
काशी नरेश भी इस लीला के साक्षी बनते हैं. हाथी पर सवार होकर महाराज बनारस लीला स्थल पर पहुंचते हैं और देव स्वरूपों को सोने की गिन्नी उपहार स्वरुप देते हैं. इसके बाद लीला शुरू होती है. आयोजकों के अनुसार पिछले 228 सालों से काशी नरेश शाही अंदाज में इस लीला में शामिल होते रहे. पूर्व काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह ने इसकी शुरुआत की थी. 1796 में वह पहली बार इस लीला में शामिल हुए थे. तब से उनकी पांच पीढ़ियां इस परंपरा का निर्वहन करती चली आ रही हैं.