वाराणसी। पूर्वांचल सहित बिहार और अन्य कई राज्यों में होने वाले ‘ खेसारी’ दाल पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के न्यूरोलॉजी विभाग ने अपने शोध पर आधारित लघु फिल्म खेसारी ‘कल आज और कल’ का बुधवार को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में लोकार्पण किया. इस दौरान देश के कई जाने-माने न्यूरोलॉजिस्ट मौजूद रहे. इस दौरान सभी न्यूरोलॉजिस्टों ने कहा कि खेसारी से लकवा के होने का कोई सीधा प्रमाण नहीं मिला है. खेसारी दाल को चिकित्सकों ने स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद बताया.
इस दौरान खेसारी दाल की खेती करने वाले बलिया और गाजीपुर के किसान भी मौजूद रहे. उन्होंने बताया कि खेसारी को गरीबों के थाली का दाल कहा जाता है. किसानों ने बताया कि वैज्ञानिकों ने खेसारी दाल खाने से लकवा की बीमारी होने का दावा किया तो सरकार ने इस दाल के वितरण, भंडारण और इस्तेमाल पर 60 के दशक में रोक लगा दी. लेकिन आज भी खेसारी खाद्य पदार्थों अरहर और चना की तुलना में बहुत सस्ता है. इसलिए खेसारी दाल का उपयोग नियमित रूप से बेसन और अन्य दाल उत्पादों में मिलावट करने के लिए किया जाता है. इसके अतिरिक्त खेसारी दाल अरहर दाल के समान है, इसलिए इसका उपयोग भोजनालयों द्वारा अपने लाभ मार्जिन को बढ़ाने के लिए अधिक महंगी दाल-आधारित खाद्य वस्तुओं में मिलावट करने के लिए किया जाता है.
इस दौरान ख्यात न्यूरोलॉजिस्ट प्रो. यू. के. मिश्र ने अपने द्वारा यूपी में होने वाले लंगड़ेपन पर किये गये शोध का इतिहास बताया. उन्होंने भी इस बात पर जोर दिया कि खेसारी खाने से पक्षाघात या यूं कहे कि न्यूरोलॉजिकल बीमारी का कोई सीधा संबंध नहीं पाया गया है. उन्होंने कहा कि इस विषय पर डाक्टर शांतिलाल कोठारी, प्रोफेसर एस एन रॉव जैसे महान चिकित्सा वैज्ञानिकों के शोध निरंतर याद रखे जायेंगे.
लोकार्पित हुई फिल्म वाराणसी के महामना की बगिया काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रोफेसर विजयनाथ मिश्र, प्रोफेसर आरएन चौरसिया, प्रोफेसर अभिषेक पाठक एवं इहबास नई दिल्ली के प्रोफेसर सीबी त्रिपाठी की संयुक्त टीम ने यूपी के गाजीपुर जिले के मोहमदाबाद सहित बिहार और एमपी के उन क्षेत्रों के 9 हजार लोगों पर शोध किया जहां खेसारी के दाल का उत्पादन और इस्तेमाल हो रहा है.
प्रो. मिश्रा के नेतृत्व में बीएचयू की टीम ने निष्कर्ष निकाला कि अकेले फलियों के सेवन से लेथिरिज्म नहीं होता. खेसारी दाल में 31% प्रोटीन, 41% कार्बोहाइड्रेट, 17% कुल आहार फाइबर, दो प्रतिशत वसा और दो प्रतिशत राख होती है, जो सूखे पदार्थ के आधार पर होती है. “लागत-प्रभावी होने के अलावा, इस दाल को पकाने के लिए कम ईंधन की आवश्यकता होती है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि गैर-न्यूरोटॉक्सिक होने के अलावा, लेथिरस दाल में वास्तव में कुछ कार्डियोप्रोटेक्टिव पोषक तत्व होते हैं, जैसा कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित अध्ययनों के अनुसार है. हमारा अध्ययन यूपी और बिहार के 20 जिलों में किया गया था. प्रोफेसर मिश्रा के अनुसार, प्रतिबंध के बावजूद राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार में कम मात्रा में इस दाल की खेती की जा रही है, क्योंकि यह उच्च उपज देने वाली और सूखा प्रतिरोधी दाल है. इसके अलावा, यह फसल बाजार में काफी आसानी से पहुंच जाती है.
कार्यक्रम में विश्व के जाने माने न्यूरोलॉजिस्ट प्रो. यू के मिश्र, प्रो देवशीष चौधरी, प्रो रामेश्वर नाथ चौरसिया, प्रो अभिषेक पाठक, प्रो सुमन कुशवाहा, डॉ दिनेश चंद्र शर्मा ने भी अपने विचार व्यक्त किए.
इस दौरान प्रदीप राय वरिष्ठ अधिवक्ता (पूर्व उपाध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन) अरिजीत प्रसाद वरिष्ठ अधिवक्ता, कमलेन्द्र मिश्रा , ज्योति मिश्रा राका, मनोज मिश्रा, दिनेश ठाकुर, संजय विसेन, कैलाश पांडेय , अमित यादव, नीलकंठ नायक , राजीव कुमार,चंद्रिका मिश्रा, उमेश दूबे, अमरेन्द्र सिंह, एसीपी अक्षय कुमार, नवदृष्टि विभूति फ़ाउंडेशन के सचिव विजय भान, फोटोग्राफर मनीष खत्री मौजूद रहे.
गायक अष्टभुजा मिश्र ने खेसारी किसानों के दर्द को अभिनयपूर्वक व्यक्त किया. हंडिया से आये हुए लोक नर्तक कलाकारों ने शानदार धुड़ दौड़ अभिनय किया. फ़िल्म निर्देशक आशुतोष पाठक ने फ़िल्म के अपनी संघर्ष को बताया.
भारतीय न्यूरोलॉजी एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रो देवशीष चौधरी ने न्यूरोलेथिरिजम के वर्तमान संदर्भ के शोध एवं खेसारी दाल पर से प्रतिबंध हटाने के लिए अखिल भारतीय शोध करने और खेसारी किसानों के हक़ में लड़ाई में समर्थन देने की बात कही।
धन्यवाद ज्ञापन प्रोफेसर अभिषेक पाठक ने किया. अतिथियों का स्वागत प्रोफेसर आरएन चौरसिया ने किया.
भारत संरचनात्मक दृष्टि से गांवो का देश है, और सभी ग्रामीण समुदायों में अधिक मात्रा में कृषि कार्य किया जाता है। इसीलिए भारत को भारत कृषि प्रधान देश की संज्ञा भी मिली हुई है। किसान खेतों में जो उगाता है वही हमारी थाली तक पहुंचता है। वर्ष 1960 से पूर्व दलहन में ‘खेसारी दाल’ का अपना अलग महत्व रहा। इसे गरीबों की थाली का दाल कहा जाता रहा है।
वैज्ञानिकों ने खेसारी दाल खाने से लकवा की बीमारी होने का दावा किया तो सरकार ने इस दाल वितरण, भंडारण और इस्तेमाल पर 60 के दशक में रोक लगा दी। इसके बाद गरीबों के थाली में दाल की कमी हो गई और उनके पहुंच से बाहर हो गई, पर देश के कई हिस्सों में वैज्ञानिकों ने शोध कर पाया कि खेसारी दाल से न्यूरोलॉजिकल बीमारियों का कोई सीधा संबंध नहीं है। इनमे प्रमुख रुप से शोध करने वालों में डाक्टर शांतिलाल कोठारी, प्रोफेसर एस एन रॉव आदि रहे। वर्तमान में वाराणसी के महामना की बगिया काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के न्यूरोलॉजी विभाग ने भी शोध किया। प्रोफेसर विजयनाथ मिश्र, प्रोफेसर आरएन चौरसिया, प्रोफेसर अभिषेक पाठक एवं इहबास नई दिल्ली के प्रोफेसर सीबी त्रिपाठी की संयुक्त टीम ने यूपी के गाजीपुर जिले के मोहमदाबाद सहित बिहार और एमपी के उन क्षेत्रों के 9 हजार लोगों पर शोध किया जहां खेसारी के दाल का उत्पादन और इस्तेमाल हो रहा है.
न्यूरोलॉजी विभाग द्वारा हुए शोध पर आधारित 22 मिनट की फिल्म “खेसारी – कल, आज और कल” में किसान, कृषि शोधकर्ता, पोषण विशेषज्ञ, सरकारी प्रतिनिधि और न्यूरोलॉजिस्टों के तथ्यपरक विचार लिए गए है. यह फिल्म बीएचयू के न्यूरोलॉजी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर विजय नाथ मिश्रा द्वारा किए गए विस्तृत शोध से प्रेरित है. प्रोफेसर मिश्रा कहते हैं, “22 मिनट की यह विचारोत्तेजक डॉक्यूमेंट्री, जिसे निपुण फिल्म निर्माता आशुतोष पाठक ने कुशलतापूर्वक निर्देशित किया है, न केवल वंचितों के लिए मुख्य भोजन खेसारी दाल के महत्व को रेखांकित करती है, बल्कि प्रासंगिक सवाल भी उठाती है।” उन्होंने कहा कि यह इसकी खेती और उपभोग पर प्रतिबंध के पीछे के कारणों, गरीबों की दाल के रूप में इसके लेबल के औचित्य की पड़ताल करती है। प्रतिबंध की वैधता, खेसारी दाल पर प्रतिबंध का विरोध करने वाले कई वैज्ञानिकों की मंशा, इस दाल और गाजीपुर जिले के मोहम्मदाबाद क्षेत्र के बीच संबंध और देश के अन्य हिस्सों में प्रतिबंध हटा लिए जाने के बावजूद उत्तर प्रदेश में प्रतिबंध का जारी रहना हैरान करने वाला है। वैज्ञानिकों और महामारी विज्ञानियों द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर प्रतिबंध लगाया गया था कि लंबे समय तक अधिक मात्रा में लेथिरस दाल का सेवन करने से लेथिरिज्म हो सकता है – एक ऐसी स्थिति जो न्यूरोटॉक्सिन, एमिनो-एसिड β-एन-ऑक्सालिल-एल-β डायअमीनोप्रोपियोनिक एसिड (ओडीएपी, जिसे बीओएए भी कहा जाता है) की उपस्थिति के कारण निचले अंगों के पक्षाघात का कारण बन सकती है। केंद्र के फैसले के बाद, उत्तर प्रदेश राज्य में बिक्री और भंडारण पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला राज्य था। प्रो. मिश्रा के नेतृत्व में बीएचयू की टीम ने निष्कर्ष निकाला कि अकेले फलियों के सेवन से लेथिरिज्म नहीं होता खेसारी दाल में 31% प्रोटीन, 41% कार्बोहाइड्रेट, 17% कुल आहार फाइबर, दो प्रतिशत वसा और दो प्रतिशत राख होती है, जो सूखे पदार्थ के आधार पर होती है। “लागत-प्रभावी होने के अलावा, इस दाल को पकाने के लिए कम ईंधन की आवश्यकता होती है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि गैर-न्यूरोटॉक्सिक होने के अलावा, लेथिरस दाल में वास्तव में कुछ कार्डियोप्रोटेक्टिव पोषक तत्व होते हैं, जैसा कि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित अध्ययनों के अनुसार है। हमारा अध्ययन यूपी और बिहार के 20 जिलों में किया गया था। प्रोफेसर मिश्रा के अनुसार, प्रतिबंध के बावजूद राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के अलावा उत्तर प्रदेश और बिहार में कम मात्रा में इस दाल की खेती की जा रही है, क्योंकि यह उच्च उपज देने वाली और सूखा प्रतिरोधी दाल है। इसके अलावा, यह फसल बाजार में काफी आसानी से पहुंच जाती है। दालों के लोकप्रिय मुख्य खाद्य पदार्थों अरहर और चना की तुलना में बहुत सस्ता, लेथिरस दाल का उपयोग नियमित रूप से बेसन और अन्य दाल उत्पादों में मिलावट करने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त, चूंकि लेथिरस दाल अरहर दाल के समान है, इसलिए इसका उपयोग भोजनालयों द्वारा अपने लाभ मार्जिन को बढ़ाने के लिए अधिक महंगी दाल-आधारित खाद्य वस्तुओं में मिलावट करने के लिए किया जाता है।
ऐसे में वैज्ञानिकों का मानना है कि खेसारी के वर्तमान फसल पर तत्काल प्रतिबंध हटाना चाहिए।