“कृष्णा सोबती सारी जिंदगी स्त्री अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। कृष्णा जी हिन्दी की सोफेस्टीकेटेड महिला रही हैं। 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हम यदि महादेवी को जानते हैं तो उत्तरार्द्ध में तमाम लेखिकाओं के बीच कृष्णा सोबती हैं। बनारस में ये पहला अवसर है जब किसी साहित्यकार की जन्मशती अपने तय समय पर हो रही है। मेरा उनसे परिचय 1967 में ‘यारों के यार’ उपन्यास से हुआ था। उन दिनों उपन्यास में अपशब्दों के प्रयोग ने कृष्णा जी को लाइमलाइट में ला दिया था।”
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उक्त बातें कथाकार काशीनाथ सिंह जी ने रविवार को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के महिला अध्ययन एवं विकास केन्द्र के तत्वावधान में कृष्णा सोबती की जन्मशती पर आयोजित ‘स्त्री यथार्थ और स्त्री आख्यान : भारतीय उपन्यास और कृष्णा सोबती’ विषयक त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन वक्तव्य देते हुए कहीं। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र की शुरुआत मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण, दीप प्रज्ज्वलन और विश्वविद्यालय के कुलगीत गायन से हुई ।
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स्वागत वक्तव्य देते हुए कथा आलोचक नीरज खरे ने कहा कि कृष्णा सोबती ने भारतीय स्त्री के विविध स्वप्नों, आकांक्षाओं, ग्रामीण एवं नागर स्त्रियों के प्रतिरोधी स्वरों को अपने साहित्य में चित्रित किया है । महाभारत से होते हुए नई दृष्टि हमें आधुनिक आख्यानों भारतीय उपन्यासों में देखने को मिलती है।
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बीज वक्तव्य देते हुए महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित कवयित्री अनामिका ने कहा कि स्त्री भाषा में बहुत ताकत होती है। पूरी धरती को माँ की दृष्टि से देखना स्त्रीवाद है। स्त्री दृष्टि ही पदानुक्रम तोड़ने वाली दृष्टि है। स्त्री दृष्टि में परायेपन जैसी कोई चीज नहीं होती, उनकी दृष्टि स्वानुभूति से निर्मित होती है। स्त्रियों ने जब स्वयं लिखना शुरू किया तब स्थितियाँ बदलीं उन्होंने पश्चिमी विधा को अपने रंग में रंग लिया। ‘कठगुलाब’ उपन्यास में कृष्णा सोबती ने रक्त संबंधों और यौन संबंधों की जगह आत्मा के संबंधों को परिवार की नींव के रूप में चित्रित किया है। ‘जिंदगीनामा’, ‘मित्रो मरजानी’ उपन्यासों में पंचायती भाषा, लोक आख्यानों की भाषा, इतिहास से लेकर समाज विज्ञान के शब्द देखने को मिलते हैं। मैं कस्बे की स्त्री हूँ और जानती समझती हूँ कि नई लड़कियाँ देह नहीं, देह के घावों को अपनी रचनाओं में चित्रित कर रही हैं।
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विशिष्ट वक्ता श्री अखिलेश ने कहा कि कृष्णा जी ने स्त्री और पुरुषों दोनों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर उपन्यास रचे हैं। किसी भी समय के इतिहास और समाज को समझने के लिए उपन्यास एक प्रमुख टैक्स्ट होता है। जब दुनिया सो रही होती थी, तो कृष्णा जी लिखा करती थी। ‘यारों के यार’ में गालियों का प्रयोग उन्होंने पुरुष समाज को चैलेंज के रूप में लिखा था।
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संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहीं सामाजिक विज्ञान संकाय प्रमुख प्रो. बिंदा परांजपे जी ने कहा कि आधुनिक स्त्री उपन्यासकारों के उपन्यासों में हमें ध्यान देने की जरूरत है कि क्या सावित्रीबाई फुले की काव्यभाषा का प्रतिबिंब समकालीन स्त्री रचनाकारों की रचनाओं पर पड़ा है या नहीं। क्या रमाबाई की भाषा को आगे के स्त्री रचनाकारों ने अपनाया? या प्रभावती और कस्तूरबा जैसी स्त्रियों की भाषा और उद्देश्य का प्रभाव आगे की स्त्री किरदारों पर पड़ा या नहीं।
उद्घाटन सत्र का संचालन डॉ. प्रीति त्रिपाठी ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मीनाक्षी झा ने किया। इस कार्यक्रम में बाहर से आए विद्वान प्रो. योजना रावत, प्रो. संजीता वर्मा, प्रो. लक्ष्मी जोशी, प्रो. संजीव कुमार, डॉ . मिथिलेश शरण चौबे और बनारस के प्रो. अवधेश प्रधान, प्रो. बलिराज पाण्डेय, प्रो. मनोज कुमार सिंह, प्रो. आनन्दवर्धन शर्मा, प्रो. विनय कुमार सिंह, प्रो. डी. के. ओझा, प्रो. प्रभाकर सिंह, डॉ. किंगसन सिंह पटेल, डॉ. प्रभात कुमार मिश्र, डॉ. विवेक सिंह, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, डॉ. मीनाक्षी झा, डॉ. रविशंकर सोनकर, डॉ. विंध्याचल यादव, डॉ. प्रियंका सोनकर, डॉ. सुशील कुमार सुमन, डॉ. शैलेन्द्र सिंह, डॉ. विभाग वैभव, डॉ. मानवेंद्र सिंह, डॉ. सचिन मिश्र के साथ ही काफी संख्या में शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।