वाराणसी। भाषा का जीवन उसके पुनरुत्पादन से जुड़ा होता है। उसका जीवन उसकी समाहन शक्ति में है।भाषा की जीवनी शक्ति सबाल्टर्न के पास होती है क्योंकि उसमें पॉवर ऑफ इमेजिनेशन की शक्ति सबसे ज्यादा होती है। भाषा के मरण के विलाप के साथ–साथ हमें यह भी देखना चाहिए कि भाषा किसी न किसी रूप में कैसे जीवित रह जाती है। हम जिन भाषाओं को मृत मान रहे हैं हो सकता है वो किसी रूप में जीवित हों, हमारा शोध उन तक न पहुँच पा रहा हो। भाषा की जीवंतता के मूल में हमें यह ध्यान देना चाहिए कि वह कौन–सी चीज़ है जो उसे जीवित रखे हुए है। बाजार से भाषा को खतरे की अवधारणा भी पूरी तरह से ठीक नहीं है क्योंकि बाजार भी भाषा के विकास के लिए एक रास्ता पैदा करता है जिससे भाषाएँ आगे बढ़ती हैं।” उक्त बातें हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि एवं समाज विज्ञानी प्रो० बद्री नारायण ने शुक्रवार को बीएचयू परिसर स्थित सामाजिक विज्ञान संकाय के संबोधि सभागार में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के तहत ‘भाषिक बहुलता, भारतीय भाषाएँ और हिन्दी’ विषयक व्याख्यान देते हुए कहीं।
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विषय पर बीज वक्तव्य देते हुए प्रो. बसंत त्रिपाठी ने कहा कि “1975 में नागपुर में पहला सम्मेलन हुआ और गैर हिंदी प्रदेश में हुआ। विगत दो शताब्दियों का समय भाषाई उपलब्धियों के साथ भाषाई विवाद का भी विषय रहा है। 19 वीं शताब्दी के पहले भाषा और राज्य का वैसा अन्तर्सम्बन्ध नहीं था। भाषाई विवाद अब तक हल नहीं हुआ है, भाषाई बहुलता इसका एक महत्वपूर्ण कारण है।
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उन्होंने कहा कि भाषा का प्रश्न भावात्मक और तकनीकी एक साथ होता है। नेहरू की मानसिकता थी कि भाषाई विविधता का मुख्य कारण अशिक्षा है वहीं स्टालिन का मानना था कि वर्ग भाषा जैसी कोई चीज नहीं होती। 19 वीं शताब्दी तक सभी भाषाएँ विकसित हो चुकी थीं। सूफी साहित्य में इमोशंस का महत्त्व ज्यादा है। बंदा नेवाज हिन्दी को ज्यादा मुफीद मानते थे, वहीं भारतेन्दु , प्रताप नारायण मिश्र को खड़ी बोली शुष्क मालूम पड़ रही थी।संत ज्ञानेश्वर का कहना था कि वे जिस इलाके में जाएँगे, उस इलाके की भाषा में रचना करेंगे। 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिशर्स के आने के बाद भाषाई विवाद, हिन्दी उर्दू विवाद प्रसिद्ध हुआ। केलाग ने अपने व्याकरण में हिन्दी को स्तरीय हिन्दी कहा है। हिन्दी-उर्दू में लहज़े का अंतर है। केलाग वाक्य संरचना और भाषा व्यवहार के लहजे से हिन्दी और उर्दू में अंतर साबित करते हैं। धर्म, भाषा और लिपि में अनिवार्य संबंध होता है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा बनाने की शुरुआत हिन्दीतर भाषा से जुड़े हुए लोगों ने की। स्वस्थ भाषाई टकराहट इसी तरह से होती रहनी चाहिए।”
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कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं सामाजिक विज्ञान संकाय की प्रमुख प्रो. बिंदा परांजपे ने कहा कि “प्रेम अपनी भाषा में नहीं होता उसके लिए हिंदी एज ए ग्लोबल लैंग्वेज चाहिए। जब आप अपने क्षेत्र से बाहर निकलते हैं तो हिन्दी हमारी बहुत सहायता करती है। बहुभाषी होने से हम बहुज्ञानी भी होते हैं।”
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इस आयोजन का स्वागत वक्तव्य प्रो. नीरज खरे ने दिया और संचालन डॉ. विंध्याचल यादव ने किया।
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इस कार्यक्रम में प्रो. अवधेश प्रधान, प्रो. बलिराज पांडेय, प्रो. वशिष्ठ द्विवेदी, कृष्ण मोहन पांडेय, गोरखनाथ, प्रवेश भारद्वाज, डॉ संतोष, मोतीलाल, राजेश्वर जी, प्रो. प्रभाकर सिंह, डॉ. रामाज्ञा राय, डॉ. मीनाक्षी झा, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा,डॉ. मीनाक्षी झा, डॉ. प्रभात मिश्र, डॉ. रवि शंकर सोनकर के साथ ही काफ़ी संख्या में शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।