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बुरा लगा तो क्षमा करना...सूतक में रामकथा कहने और काशी विश्वनाथ का दर्शन करने पर मोरारी बापू ने मांगी माफी

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Morari bapu
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वाराणसी, भदैनी मिरर। श्रीराम कथा वाचक मोरारी बापू इन दिनों वाराणसी के सिगरा स्थित कन्वेंशन सेंटर में अपनी 958वीं रामकथा का वाचन कर रहे हैं, जो 22 जून तक चलेगी, लेकिन कथा के दूसरे दिन एक पुराना विवाद फिर उभर आया, जब मोरारी बापू ने मंच से माफी मांगते हुए कहा, “अगर मेरे बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने से किसी को ठेस पहुंची हो, तो मैं क्षमा चाहता हूं। मैं इसके लिए मानस क्षमा कथा भी कहूंगा।”

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दरअसल, बापू ने अपनी पत्नी के निधन के महज तीन दिन बाद काशी आकर बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए थे और कथा भी शुरू की थी। इसे लेकर कई सनातनी संगठनों और संतों ने कड़ा विरोध जताया था। विरोध करने वालों का कहना था कि सूतक काल में पूजा-पाठ और धार्मिक अनुष्ठान नहीं किए जाते, लेकिन मोरारी बापू ने परंपरा को तोड़ा।

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विरोध के बीच पुतला दहन और संतों की प्रतिक्रिया

इस घटना को लेकर गोदौलिया चौराहे पर मोरारी बापू का पुतला फूंका गया। लोगों ने इसे सनातन परंपराओं का उल्लंघन बताया। बापू ने सफाई देते हुए कहा था, “हम वैष्णव परंपरा से हैं। भजन, पूजा और कथा करना सूतक में वर्जित नहीं होता। भगवान का स्मरण करना ही असली सुकून है।”

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हालांकि, संत समाज इस बात से सहमत नहीं दिखा। अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “सूतक काल में कथा करना अशुभ और अनुचित है। धर्म की मर्यादा से ऊपर उठकर अर्थ की कामना करना निंदनीय है। धर्म को धंधा न बनाया जाए।”

स्वामी जी ने आगे कहा, “मोरारी बापू को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वे ब्रह्मचारी, ब्रह्मनिष्ठ या राजा किस श्रेणी में आते हैं, जिन्हें सूतक नहीं लगता? यदि वे संन्यासी हैं, तो क्या उन्होंने जीवित रहते हुए अपना पिंडदान किया है? यह सब समाज को भ्रमित करने जैसा है।”

क्या है विवाद की जड़?
सूतक काल वह अवधि होती है जिसमें परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु के बाद कुछ दिनों तक धार्मिक कार्यों को वर्जित माना जाता है। सनातन परंपरा के अनुसार, इस दौरान मंदिर जाना, पूजा करना, कथा कहना वर्जित होता है। मोरारी बापू की ओर से इस परंपरा का उल्लंघन करने के आरोप लगाए जा रहे हैं।

अब आगे क्या?
मोरारी बापू ने क्षमा मांगते हुए स्पष्ट किया कि वह प्रभु की कथा कहने के लिए आए हैं और यथासंभव धर्म के रास्ते पर ही चलना उनका उद्देश्य है। लेकिन संत समाज का आक्रोश यह बताता है कि यह विवाद जल्द खत्म होता नहीं दिख रहा।

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