सिर्फ इकबाल-ए-जुर्म के आधार पर दोषी नही ठहराया जा सकता, हाईकोर्ट ने किया उम्रकैद की सजा पाये व्यक्ति को बरी
अदालत ने कहा-जुर्म कबूल करने के बाद भी अभियोजन आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी से नही बच सकता
मैनपुरी के आजाद खान पर था बदमाशों संग डकैती और गोलीबारी का आरोप
इकबाल-ए-जुर्म और महज एक कांस्टेबल की गवाही पर जिला अदालत ने सुनाई थी उम्रकैद की सजा
प्रयागराज। केवल ‘इकबाल-ए-जुर्म‘ (स्वीकारोक्ति या इकबालिया बयान) के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जब तक कि अभियोजन पक्ष ठोस सबूतों के साथ अपना मामला साबित न करे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को कायम रखते हुए उम्रकैद की सज़ा पाए एक व्यक्ति को बरी कर दिया है। अदालत ने कहा कि आरोपी की स्वीकारोक्ति में कई विरोधाभास थे और यह विश्वसनीय नहीं लग रही थी। साथ ही, अभियोजन पक्ष कोई अन्य निर्णायक या परिस्थितिजन्य साक्ष्य पेश करने में विफल रहा, जो उस व्यक्ति के अपराध को स्थापित कर सके। कोर्ट ने कहाकि जुर्म कुबूल करने के बाद भी अभियोजन आरोप सिद्ध करने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता। न्यायमूर्ति जेजे मुनीर और न्यायमूर्ति संजीव कुमार की खंडपीठ ने मैनपुरी निवासी आरोपित आजाद खान की दोषसिद्धि के आदेश को रद्द कर दिया।



इस मामले में अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी आरोपी को केवल सफाई साक्ष्य के दौरान दिए गए बयान में कथित स्वीकारोक्ति के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता। खासकर तब जब अभियोजन पक्ष दोष सिद्ध करने के लिए कोई ठोस या सहायक साक्ष्य प्रस्तुत करने में पूरी तरह विफल रहा हो। अदालत ने कहा कि सफाई साक्ष्य के दौरान दर्ज स्वीकारोक्ति को वास्तविक स्वीकारोक्ति नहीं माना जा सकता। यह जीवन के भय या मानसिक दबाव का परिणाम भी हो सकती है। सुनवाई के दौरान अदालत ने पाया कि ट्रायल के दौरान अभियोजन की ओर से मात्र एक कांस्टेबल को बतौर औपचारिक गवाह पेश किया गया। इसके अलावा अभियोजन आरोपित के खिलाफ किसी भी तरह का सुबूत पेश करने में विफल रहा।

आपको बता दें कि यह मामला मैनपुरी के एलाऊ थान क्षेत्र का है। वर्ष 2000 में याची समेत अन्य सह आरोपियों के खिलाफ डकैती के आरोप में मुकदमा दर्ज हुआ था। आरोप था कि 10-15 बदमाशों के साथ याची ने शिकायतकर्ता के घर में डकैती डाली और गोलीबारी की। इस दौरान तीन लोग घायल हुए। मामले में फरवरी 2002 में मैनपुरी की जिला अदालत के विशेष न्यायाधीश/अपर सत्र न्यायाधीश ने आजाद खान को दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। इसके बाद याची ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। कोर्ट ने कहा कि ट्रायल के दौरान वकील की सहायता लेने में असक्षम आरोपित को राज्य की ओर से भी विधिक सहायता न देना संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रदत्त निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार का घोर उल्लंघन है। दंड प्रक्रिया संहिता के तहत भी आरोपी को विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है। इसके बाद भी फिर भी याची को कानूनी मदद न मिलना बेहद दुखद है।

