UP के धर्मांतरण विरोधी कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने उठाए सवाल
बेंच ने कहा- भारत एक सेकुलर देश है, कोई भी अपनी इच्छा के अनुसार धर्मांतरण कर सकता है

कानून के कुछ हिस्सों को बोझिल और निजता का उल्लंघन करने वाला बताया
नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में लागू धर्मांतरण विरोधी कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए और चिंता जताई हैं। अदालत ने कहा कि इस कानून के माध्यम से अपना धर्म बदलने के इच्छुक लोगों की राह को कठिन बनाया गया है। इसके अलावा जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने किसी के धर्म परिवर्तन करने की प्रक्रिया में सरकारी अधिकारियों की संलिप्तता और हस्तक्षेप को लेकर भी चिंता जताई। बेंच ने कहा कि ऐसा लगता है कि कानून इसलिए बनाया गया है कि किसी के धर्म परिवर्तन करने की प्रक्रिया में सरकारी मशीनरी के दखल को बढ़ाया जा सके। हालांकि अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यूपी के धर्मांतरण विरोधी कानून की वैधता पर फिलहाल अदालत विचार नहीं कर सकती।



सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से 2021 में लागू किए गए उत्तर प्रदेश अवैध धर्म परिवर्तन निषेध अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों पर चिंता जताई। कोर्ट ने इस कानून के कुछ हिस्सों को बोझिल और संभावित रूप से निजता का उल्लंघन करने वाला बताया। आपको बता दें कि यह टिप्पणी उस समय आई जब कोर्ट ने प्रयागराज के सैम हिगिनबॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर टेक्नोलॉजी एंड साइंस के कुलपति और अन्य अधिकारियों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद कर दिया। इन पर कथित तौर पर सामूहिक रूप से ईसाई धर्म में परिवर्तन के लिए मजबूर करने का आरोप था। कोर्ट ने इस मामले में धर्म परिवर्तन से जुड़े कानून के कुछ प्रावधानों को मौलिक अधिकारों के खिलाफ माना और इसकी गहन जांच की आवश्यकता पर बल दिया।

बेंच ने याद दिलाया कि भारत एक सेकुलर देश है। कोई भी अपनी इच्छा के अनुसार धर्मांतरण कर सकता है। यह भी कहाकि इस मामले में उत्तर प्रदेश धर्मांतरण अधिनियम के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर विचार करना हमारे दायरे में नहीं आता। फिर भी हम यह मानने से खुद को नहीं रोक सकते कि धर्मांतरण से पहले और बाद में घोषणा से सम्बंधित बनाये गये नियम किसी व्यक्ति की ओर से दूसरे धर्म को अपनाने की औपचारिकता कठिन करने वाले हैं। इन नियमों के माध्यम से धर्मांतरण की प्रक्रिया में अधिकारियों का दखल बढ़ा दिया गया है। यहां तक कि जिला मजिस्ट्रेट को कानूनी रूप से धर्मांतरण के प्रत्येक मामले में पुलिस जांच का निर्देश देने के लिए बाध्य किया गया है।

बेंच ने कहा कि कौन किस धर्म को स्वीकार कर रहा, यह उसका निजी मामला है। इस सम्बंध में घोषणा करने की बाध्यता निजता के खिलाफ है। सोचने की बात है कि आखिर क्या जरूरत है कि कोई बताए कि उसने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया है और वह किस मजहब को मानता है। इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या यह नियम निजता के प्रावधान का उल्लंघन नहीं है। राज्य में धर्मांतरण की कठोर प्रक्रिया को लेकर बेंच ने कहा कि यह ध्यान देना जरूरी है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना और धर्मनिरपेक्ष प्रकृति क्या कहती है।
बेंच ने कहाकि हमारे संविधान की प्रस्तावना अत्यंत महत्वपूर्ण है और संविधान को उसकी ’महान और दिव्य’ दृष्टि के पढ़ना चाहिए। उसके अनुसार ही व्याख्या होनी चाहिए। न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि यद्यपि ’धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 1976 में एक संशोधन के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया था। इसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का एक अभिन्न अंग है, जैसा कि 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के निर्णय में कहा गया था।


