दुष्कर्म पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी पर भड़के कपिल सिब्बल, कहा- भगवान ही इस देश को बचाए, जब ऐसे जज...




इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा एक यौन अपराध मामले में दिए गए फैसले पर कानून विशेषज्ञों ने शुक्रवार को कड़ी आलोचना की। अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि किसी लड़की के निजी अंग को पकड़ना और उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ना दुष्कर्म या दुष्कर्म के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। इस बयान के बाद न्यायपालिका की भूमिका और फैसले की संवेदनशीलता पर गहन बहस छिड़ गई है। वहीं इसपर सीनियर एडवोकेट और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष कपिल सिब्बल की प्रतिक्रिया सामने आई है।

कपिल सिब्बल की कड़ी प्रतिक्रिया
कपिल सिब्बल ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म 'एक्स' पर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए लिखा, "भगवान ही इस देश को बचाए, जब ऐसी टिप्पणियां देने वाले जज न्याय की कुर्सी पर बैठे हों! सुप्रीम कोर्ट ने गलत फैसले देने वाले जजों के खिलाफ अब तक नरमी बरती है, जो चिंता का विषय है।"

उन्होंने यह भी कहा कि हाईकोर्ट के जजों को इस तरह की टिप्पणी करने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे समाज में गलत संदेश जाता है और जनता का न्यायपालिका पर भरोसा कमजोर हो सकता है।
कानून विशेषज्ञों ने न्यायपालिका से संयम बरतने की अपील की
कानूनी विशेषज्ञों ने इस तरह की टिप्पणियों पर गहरी आपत्ति जताते हुए कहा कि इससे यौन अपराधों के खिलाफ न्याय की दिशा में नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

सीनियर एडवोकेट और पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता पिंकी आनंद ने इस फैसले की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि हाईकोर्ट का यह दृष्टिकोण बेहद चिंताजनक है। "अगर किसी लड़की के निजी अंगों को पकड़ने, उसके कपड़े फाड़ने, उसे घसीटकर एकांत में ले जाने की कोशिश करने के बाद केवल हस्तक्षेप के कारण अपराधी भाग जाता है, तो यह बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में आता है। हाईकोर्ट का फैसला इस गंभीर अपराध को हल्के में ले रहा है, जो न्याय का अपमान है।"
उन्होंने आगे कहा कि कानून को तोड़ने वालों और महिलाओं एवं बच्चों के खिलाफ अपराध करने वालों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाना चाहिए।
"फैसले से पीड़ितों का न्याय पर भरोसा कमजोर होगा" – विकास पाहवा
सीनियर एडवोकेट विकास पाहवा ने भी इस फैसले को न्यायिक प्रणाली के लिए हानिकारक बताया। उन्होंने कहा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह व्याख्या बलात्कार के प्रयास की परिभाषा को सीमित कर रही है, जिससे गलत नज़ीर स्थापित हो सकती है।
"इस तरह के फैसले से यौन हिंसा के शिकार लोगों का न्याय प्रणाली में भरोसा कमजोर हो सकता है। पीड़ितों को यह डर रहेगा कि उनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, जिससे वे न्याय मांगने से भी कतराएंगे।"
उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका को पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है ताकि यौन अपराधों को सही तरीके से पहचाना जाए और अपराधियों पर कड़ी कार्रवाई हो।
"हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया" – पीके दुबे
वरिष्ठ अधिवक्ता पीके दुबे ने विकास पाहवा की बात से सहमति जताते हुए कहा कि हाईकोर्ट की यह व्याख्या कानून की मूल भावना के विपरीत है।
"न्यायाधीशों को अपने निजी विचारों को फैसलों में शामिल करने से बचना चाहिए और स्थापित कानून व न्यायशास्त्र का पालन करना चाहिए। यौन अपराधों की गंभीरता को नजरअंदाज करना न्याय व्यवस्था की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करता है।"