Home नेशनल Kargil War: ‘तिरंगा लहराकर आऊंगा या उसमें लिपटकर, लेकिन वापस आऊंगा जरुर…’ जानें कारगिल युद्ध के ‘शेरशाह’ विक्रम बत्रा के साहस की कहानी

Kargil War: ‘तिरंगा लहराकर आऊंगा या उसमें लिपटकर, लेकिन वापस आऊंगा जरुर…’ जानें कारगिल युद्ध के ‘शेरशाह’ विक्रम बत्रा के साहस की कहानी

by Bhadaini Mirror
0 comments

भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध को समाप्त हुए 25 साल बीत चुके हैं। कारगिल युद्ध के ‘शेरशाह’ से यानि कैप्टन विक्रम बत्रा ने इस युद्ध में अपने देश के प्रति दृढ़ संकल्प और दायित्व के लिए अपना जीवन दाव पर लगा दिया आज भी वे अपने साहस, वीरता, प्रेम और मातृभूमि के प्रति समर्पण के लिए याद किए जाते हैं।

Ad Image
Ad Image

विक्रम और उनके जुड़वां भाई विशाल का जन्म 9 सितंबर 1974 को हिमाचल प्रदेश में पालमपुर निवासी जीएल बत्रा के घर हुआ था। उनकी माँ की रामचरितमानस में गहरी श्रद्धा थी और इसलिए उन्होंने अपने पुत्रों का नाम लव और कुश रखा। लव बाद में विक्रम और कुश विशाल बने। विक्रम का जन्म और पालन-पोषण सामान्य मिडिल क्लास बच्चे के रूप में हुआ था। उनकी भारतीय सेना में जाने की बहुत रुचि थी। 1996 में पंजाब विश्वविद्यालय में अपने स्नातक पाठ्यक्रम के दौरान, उन्होंने नागरिक सुरक्षा (सीडीएस) परीक्षा का अटेम्प्ट किया और इंडियन मिलिट्री एकेडमी में शामिल होने के लिए कॉलेज छोड़ दिया।

Ad Image
Ad Image

दिसंबर 1997 में अपना प्रशिक्षण पूरा करने पर, उन्हें सेना के 13 जम्मू और कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्त किया गया और सोपोर, जम्मू में अपनी पहली पोस्टिंग प्राप्त की। अगले ही साल, बत्रा ने इन्फैंट्री स्कूल में पांच महीने के यंग ऑफिसर्स कोर्स के लिए मध्य प्रदेश जाने का ऑप्शन चुना, जिसके बाद उन्हें अल्फा ग्रेडिंग से सम्मानित किया गया और उन्हें जम्मू-कश्मीर में अपनी बटालियन में फिर से शामिल किया गया। उन्होंने 1999 में भारतीय सेना के कमांडो प्रशिक्षण के साथ-साथ कई प्रशिक्षण भी लिया।

Ad Image
Ad Image
Ad Image

बत्रा होली के त्योहार के दौरान छुट्टी पर अपने होमटाउन आए थे। जब पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भारत को कारगिल युद्ध के लिए मजबूर कर दिया गया था। विक्रम ने अपने दोस्तों और मंगेतर डिंपल चीमा से ये वादा किया था कि “मैं कारगिल में तिरंगा लहराकर या उसमें लपेटकर वापस आऊंगा, लेकिन मैं निश्चित रूप से वापस लौटूंगा”।

Ad Image
Ad Image

कैप्टन बत्रा की टुकड़ी को श्रीनगर-लेह रोड के ठीक ऊपर सबसे महत्वपूर्ण चोटी 5140 को पाक सेना से मुक्त कराने की जिम्मेदारी मिली। दस्ते को सबसे आगे ले जाकर विक्रम ने निर्भीकता से शत्रु पर आक्रमण किया। हाई रिस्क एरिया होने के बावजूद बत्रा ने अपने साथियों के साथ महज आधे दिन में चोटी पर कब्जा कर लिया। कैप्टन विक्रम बत्रा ने इस शिखर से रेडियो के माध्यम से अपनी जीत का उद्घोष करते हुए कहा, ‘दिल मांगे मोर’।

Ad Image

कैप्टन विक्रम और उनकी टुकड़ी को बाद में युद्ध में प्वाइंट 4875 पीक पर कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई, जहां बत्रा ने आमने-सामने की लड़ाई में प्वाइंट ब्लैंक रेंज पर दुश्मन के पांच सैनिकों को मार गिराया। हालांकि, वह स्नाइपर के निशाने पर आ गए और गंभीर रूप से घायल हो गए। युद्ध में उन्होंने सबसे आगे रहकर लगभग असंभव कार्य को पूरा किया।

उन्होंने अपनी जान की भी परवाह नहीं की और दुश्मन की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच इस ऑपरेशन को अंजाम दिया। युद्ध में बुरी तरह घायल होने के बाद कैप्टन बत्रा ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। युद्ध के मैदान पर उनकी असाधारण वीरता के लिए, भारत सरकार ने कैप्टन विक्रम बत्रा को मरणोपरांत सर्वोच्च और सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

Social Share

You may also like

Leave a Comment