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मसाने की होली कवर करने गए फोटो जर्नलिस्ट को जब एक-एक पल भारी पड़ने लगा!

कई बार ऐसा लगा कि मैं गिर जाऊंगा या मेरी सांसे रुक जाएंगी
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Masane Ki Holi
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मसान की होली एक बहुत गंभीर शब्द है और उसके उसके गहरे अर्थ हैं। जिसे सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता। मैं उन रहस्यों पर यहां चर्चा नहीं कर रहा और ना ही मैं उस पर चर्चा कर पाने के योग्य हूं।
दोस्तों मैं किसी परंपरा का विरोधी नहीं हूं लेकिन जब परंपरा विद्रूप हो जाए और उसका गलत परिणाम आने लगे तो निश्चित रूप से उसकी आलोचना होनी चाहिए क्योंकि ऐसी परंपरा या आयोजन समाज और संस्कृति दोनों के लिए घातक है।
मैं बात मसान की होली की कर रहा हूं जो चंद दिनों में होने वाली है और आयोजक उसे सफल बनाने की तैयारी में लगे हुए मेरी शुभकामना है कि वह सफल हो लेकिन वह घाव नहीं होना चाहिए। 
मसान की होली एक बहुत गंभीर शब्द है और उसके उसके गहरे अर्थ हैं। जिसे सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता। मैं उन रहस्यों पर यहां चर्चा नहीं कर रहा और ना ही मैं उस पर चर्चा कर पाने के योग्य हूं। मसाने की होली के  इतिहास पर मैं नहीं जाना चाहता।  मणिकर्णिका घाट पर कुछ लोग इस आयोजन को करते थे तब अखबार का छायाकार होने के नाते उसे कवर करता था।  बाद के कुछ सालों में मेरी उससे दूरी बनी रही। पिछले साल उत्सुकता वश  उसे कवर करने के लिए पहुंचा था। वहां मैं अपार भीड़ देखकर हैरान था। तमाम युवक-युवतियां बालों में सफेद आला रोट या सफेद पदार्थ या हवा में उड़ने वाला सफेद अबीर लगाकर भभूआ रहे थे । हमारे यहां इसे देवी खेलना कहते हैं।
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मैं आयोजन स्थल पर पहुंचना चाहता था जहां से सफेद अबीर उड़ाया जा रहा था । लाख प्रयास के बाद भी मैं उस स्थान तक नहीं पहुंच पाया। कई बार ऐसा लगा कि मैं गिर जाऊंगा या मेरी सांसे रुक जाएंगी। मुझे खतरे का आभास हुआ और मैं जल्दी से जल्द उसमें से निकल जाना चाहता था। घाट पर इस तरह की भीड़ । किसी के गिरते ही क्या स्थिति होगी अनुमान लगाइए।
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     किसी तरह से मैं यहां से निकला तो खुली हवा मिली फिर मैं कचौड़ी गली की तरफ मुड़ गया। भाई साहब मैं बुरी तरह से भीड़ में दबा जा रहा था छाती पर बल पड़ रहा था मानो फेफड़े टूट जाएंगे किसी तरह से मैं अपने को सुरक्षित रखे हुए था और उस भीड़ से निकल जाना चाहता था । मैं इस भीड़ में इसीलिए घुसा था कि मैं उसकी फोटो और वीडियो बना सकूं।  अब एक एक पल भारी हो रहा था । 
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 सकरी गली में चपी हुई भीड़। खतरे में डालकर वीडियो कैसे बनाया इसकी चर्चा में फिर करूंगा वैसे वीडियो देखकर आप स्वत: ही अनुमान लगा सकते हैं। 
वहां जो सबसे खराब स्थिति देखी वह शव यात्रियों की थी। गली में शवों की कतार थी और सांस फूलने वाली भीड़। शव यात्रियों की दुर्गति हो रही थी वह किसी तरह शव को कंधे पर रखकर संभाले हुए थे। कभी किसी तरफ से भीड़ दबाती तो कभी दूसरे तरफ से। मैं अपना कैमरा एक जगह स्थिर नहीं कर सकता था लेकिन  उस दृश्य को मैं कैद कर लिया।  किसी तरह तंग गली की दीवार से चिपक कर मैं अपने को संभाले हुए था। सीने में दर्द होने लगा था सांसे फूलने लगी थीं। हिम्मत जवाब दे रही थी कि मैं उस भीड़ में और देर तक रहकर कुछ और तस्वीर बना सकूं इसकी शक्ति नहीं बची थी। किसी तरह से मैं निकला और विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर पहुंचा थोड़ी देर बैठ फिर आगे बढ़ा।
मैंने खतरा मोल लेकर शव यात्रियों की दुर्गति की जो तस्वीर उतारी वह पूरे आयोजन पर प्रश्न चिह्न लगाती है। क्या यही श्मशान की होली है, क्या यही वह परमतत्व है जिसे श्मशान की राख को पोत कर प्राप्त किया जाता है !क्या विश्वनाथ मंदिर में चप्पलों की होली आध्यात्मिक पराकाष्ठा है। आप बुद्धिमान विचारवान और विद्वान हैं निर्णय आपको करना है।
 नोट: मैं यहां जो वीडियो क्लिप शेयर कर रहा हूं आप उसे देखकर मेरी और वहां की स्थिति का अंदाजा लगा सकते हैं यात्रियों की दुर्दशा को भी देख सकते हैं कि कैसे वे अपने को संभाले हुए हैं। यह तस्वीर मेरे जीवन के महत्वपूर्ण तस्वीरों में से एक है।


 

आप कोविन कार्टर की उस तस्वीर को याद कर सकते हैं जिसमें एक भूख से मरते बच्चे को गिद्ध देख रहा है। इस संबंध में हम फिर कभी चर्चा करेंगे।
यह वही शव और शव यात्री हैं जिनके लिए हम रास्ता दे देते हैं और उसके सामने अपना सिर झुका देते हैं कहते हैं कि राम और यह  शव ही सत्य है।
यहां शव यात्रियों की दुर्गति और सत्य शव का अपमान ही आयोजन की सफलता है ? क्या यह आध्यात्मिक पराकाष्ठा है ?
(अनिरुद्ध पांडेय के फेसबुक वॉल से। अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र से जुड़े रहे अनिरुद्ध पांडेय वाराणसी के वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट है। आप अच्छे लेखक है। आप काशी विद्यापीठ के महामना मदन मोहन मालवीय हिंदी पत्रकारिता संस्थान में फोटो पत्रकारिता पढ़ाते है।)
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