वाराणसी। अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक की ओर से ‘विरासत संवाद’ के क्रम में आज हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र के पैतृक आवास भारतेंदु भवन में ‘बनारस, हिंदी और भारतेंदु’ विषय पर एक संवाद सत्र का आयोजन किया गया। यह आयोजन भारतेंदु भवन के संरक्षक और भारतेंदु बाबू के वंशज दीपेश चौधरी के नेतृत्व में आयोजित किया गया।
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कार्यक्रम का संयोजन अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक की ओर से शैलेश तिवारी ने किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि आलोचक प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल ने की तथा मुख्य अतिथि के रूप में ख्यात न्यूरोलॉजिस्ट प्रो.विजयनाथ मिश्र उपस्थित रहे।
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मुख्य अतिथि के रूप में बोलते प्रो.विजयनाथ मिश्र ने कहा कि भारतेंदु बाबू काशी के लिए किवदंती बन चुके हैं, अल्पायु में ही भारतेंदु बाबू ने अपनी समृद्ध साहित्य के माध्यम से सांस्कृतिक पुरुष का दर्जा हासिल किया है, काशी के लिए भारतेंदु बाबू सांस्कृतिक विरासत हैं। काशी में जिन्होंने भारतेंदु को पढ़ा है और नहीं पढ़ा है दोनों के लिए भारतेंदु बाबू और उनका साहित्य अमूल्य निधि के स्वरूप हैं जिनका मूल स्वर घाटों की संस्कृति से ही निकला है।
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अध्यक्षीय वक्त्तव्य में साहित्यकार प्रो.श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि भारतेंदु बाबू काशी से संस्कार ग्रहण करते थे और हिंदी के माध्यम से विचार करते थे। प्रो.शुक्ल ने कहा कि घाट संस्कृति का मतलब घाटों को जीना है, इन्हीं के माध्यम से हम अपने विरासत तक पहुँच पा रहे हैं। भारतेंदु बाबू काशी की विद्यापीठता की प्रतिमूर्ति थे। संगीत के घराने के समानांतर भारतेंदु बाबू ने मंडल की स्थापना की, साहित्य में समूह या मंडल की कल्पना भारतेंदु बाबू ने आज से 150 साल पहले की थी। भारतेंदु बाबू वैष्णव थे और उनकी वैष्णवता पंचगंगा की सीढ़ियों पर आए रामानंद की प्रगतिशील वैष्णवता थी।
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प्रो.शुक्ल ने कहा कि अपनी अल्पायु में भारतेंदु बाबू ने बहुत गति से लेखन किया लेकिन जो भी लिखा उसे सही और सटीक लिखा। काशी को लेकर उनके मन में बहुत प्यार था, वे कहते थे कि यदि तीर्थों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ प्रयाग है और पुरियों में सर्वश्रेष्ठ पुरी काशी है। काशी में बुढ़वा मंगल की परिकल्पना भारतेंदु बाबू के माध्यम से सफल रही थी, अपने ‘प्रेम जोगिनी’ नाटक के माध्यम उन्होंने काशी के स्याह और सफेद दोनों पक्षों दिखाया है।
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प्रो.शुक्ल ने कहा कि मैं भारतेंदु बाबू को काशी का विकल चिंतक और हिंदी का सकल प्रस्तावक मानता हूँ। उनके निबंधों की यदि भाषा देखी जाए तो उसमें काशी के घाटों की छटा दिखाई देती है। भारतेंदु बाबू के घर में काशी घाट वॉक का पहुँचता उसको अपनी पूर्णता की ओर ले जाता है। वे हिंदी के अग्रदूत ही नहीं बल्कि काशी के अग्रदीप थे जिनके माध्यम से हम काशी को खूब समझ सकते हैं।
नाट्यकर्मी नरेंद्र आचार्य ने कहा कि भारतेंदु बाबू प्रखर राष्ट्रवादी थे तथा तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी वे राष्ट्र की चिंता करते रहते थे।
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आलोचक प्रो.कमलेश वर्मा ने कहा कि हिंदी साहित्य में बहुत कम नायक हुए हैं और भारतेंदु बाबू हिंदी के कुछेक नायकों में से एक हैं जिनको केंद्र में रखकर हिंदी आगे बढ़ी। भारतेंदु बाबू मध्यकाल और आधुनिक काल के संक्रमण काल में खड़े थे और उन्होंने खुले दिल से मध्यकाल की अपनी विरासत को संरक्षित करते हुए आधुनिक काल का स्वागत किया। भारतेंदु बाबू जानते थे कि आने वाले समय में राजनीतिक और सामाजिक प्रश्न महत्वपूर्ण होंगे और उनके नाटकों में देखा जा सकता है कि राजनीतिक और सामाजिक प्रश्न गम्भीरता से उठाए गए हैं।
आलोचक डॉ. विंध्याचल यादव ने कहाकि भारतेंदु भवन की यह यात्रा भारतेंदु बाबू को जीकर जानना है। भारतेंदु बाबू ने न केवल हिंदी भाषा और साहित्य को दिशा दी बल्कि हिंदी समाज की डोर सम्भाली जिससे उसकी दशा और दिशा दोनों सुधरी।
इस अवसर पर लोक कलाकार अष्टभुजा मिश्र ने भारतेंदु बाबू के नाटक ‘प्रेम जोगिनी’ के गीत ‘देखी तुमरी काशी लोगों’ गीत का एक भावाभिनय भी प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का संचालन अक्षत पाण्डेय ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन शैलेश तिवारी ने किया। कार्यक्रम में स्वागत वक्तव्य दीपेश चौधरी ने दिया. अभय शंकर तिवारी (कुबेर) की भी विशेष भूमिका रही.