अस्सी और वरुणा नदी के संगम से बना वाराणसी, यहां गुरु रविदास जी के दो जन्म स्थान- प्रभु प्रसाद
वाराणसी। धर्म, संस्कृति और संत परंपरा की नगरी वाराणसी केवल भगवान शिव की नगरी ही नहीं, बल्कि अनेक महापुरुषों और संतों की कर्मस्थली भी रही है। इसी शहर में संत शिरोमणि गुरु रविदास के दो जन्म स्थलों को लेकर मान्यताएं प्रचलित हैं। इनमें से एक श्रीगोवर्धनपुर अधिक प्रसिद्ध है, लेकिन कई विद्वानों और अनुयायियों के अनुसार, मंडूर नगर (मंडुआडीह, लहरतारा नई बस्ती) ही उनका वास्तविक जन्मस्थान माना जाता है।
मंडूर नगर: गुरु रविदास जी का वास्तविक जन्मस्थान
गुरु रविदास जी ने अपने पदों में स्पष्ट रूप से कहा है—
"काशी डिंग मंडूर स्थाना, शूद्र वरण करत गुजराना।
मंडूर नगर लीन अवतारा, रविदास शुभ नाम हमारा।"
इस पंक्ति के अनुसार, काशी में कूड़े के ढेर पर स्थित मंडूर नगर में, जहां शूद्र जातियों की अधिकता थी, वहीं गुरु रविदास जी का जन्म हुआ था। इस क्षेत्र को अब नई बस्ती कहा जाता है, लेकिन ऐतिहासिक रूप से इसे "नीच बस्ती" के नाम से जाना जाता था, क्योंकि यहां निवास करने वाले लोग मृत पशुओं का उठान, चमड़ा रंगने और जूते बनाने का कार्य करते थे।
अस्सी और वरुणा नदी के संगम से बना वाराणसी
गंगा नदी के किनारे बसे इस शहर का नाम वाराणसी इसलिए पड़ा, क्योंकि यह अस्सी और वरुणा नदी के बीच स्थित है। अस्सी नदी श्री गुरु रविदास पार्क के पास से बहती है, जबकि दूसरी ओर वरुणा नदी प्रवाहित होती है। पुराने समय में, अस्सी नदी के प्रवाह से बहकर आने वाला कूड़ा-करकट मंडूर नगर के पास जमा हो जाता था, जिससे यह क्षेत्र गंदगी से भर जाता था। इसी कारण इसे "नीच बस्ती" कहा जाता था, जो कालांतर में "नई बस्ती" बन गई।
गुरु रविदास जी का योगदान और सामाजिक सुधार
गुरु रविदास जी का जन्म ऐसे समय में हुआ, जब समाज में ऊंच-नीच का भेदभाव चरम पर था। उनकी प्रसूति कराने वाली धम्मों दाई की पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाएं यही कार्य करती रहीं। आज भी इस मंदिर की देखभाल गुरु रविदास जी के वंशज प्रभु प्रसाद कर रहे हैं।
मंदिर के ठीक सामने स्थित नीम के वृक्ष के नीचे गुरु रविदास जी और संत कबीर जी की ज्ञान गोष्ठी हुई थी। यहीं पर उन्होंने हीरू शिकारी को अपना पहला शिष्य बनाया था।
जहां श्रीगोवर्धनपुर को गुरु रविदास जी की कर्मस्थली माना जाता है, वहीं मंडूर नगर को उनके वास्तविक जन्मस्थान के रूप में देखा जाता है। हालांकि, समाज में इस ऐतिहासिक सच्चाई को लेकर जागरूकता अभी भी सीमित है।
गुरु प्रेमियों और अनुयायियों का मानना है कि सही ऐतिहासिक तथ्यों को पहचानकर उन्हें उचित मान्यता दी जानी चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियां अपने महान संत के वास्तविक जन्मस्थल के बारे में जान सकें।